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गुरु पूर्णिमा का संदेश

गुरु तत्त्व एक ऐसा सूक्ष्म, व्यापक, चैतन्य और गुप्त तत्त्व है, जो की सहज रूप से सृष्टि के सर्जन, पालन और आसुरी तत्त्वों के संहार में निमित्त बनता है। हम शिक्षक को और कला, संगीत, नृत्य, इत्यादि सिखाने वाले को "गुरु" कहते है । किसी के पास सीखे बिना हम गा नहीं सकते, बजा नहीं सकते, नाच भी नहीं सकते, ना ही हम गाड़ी चला सकते है इसलिए सीखे बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते । हम जिनसे गुण ग्रहण करते है, उनका आदर सम्मान करते है उन्हें पूज्य और गुरु मानते है ।

इस भौतिक संसार से उच्च स्तर पर पहुंचकर जब हम भक्ति और ज्ञान मार्ग में प्रवेश करते हैं तब गीता, रामायण, वेद, शास्त्र, पुराणादि हमारी मदद करते है अर्थात्त हमारे ऋषि मुनियों और गुरुओं की वाणी शास्त्रों के द्वारा हममें कार्यरत होती है और हमारे जीवन की दिशा बदलकर उसको प्रगति की तरफ ले जाती है । सब समझ में आने लगता है की - शाश्वत क्या है और क्षणभंगुर क्या है, सत्य क्या है और असत्य क्या है, सुख क्या है और दुख क्या है। यहाँ तक की इन पांच तत्त्वों, गुणों, प्रकृति, नाम, रूप, रंग से बना हुआ यह शरीर जिसे हम हमारा मानते हैं वह वास्तव में हम नहीं हैं वह भी समझ में आ जाता है । हमारे अंतर में समाया हुआ कोई ओर है वह भी समझ में आ जाता है। हमारे हृदय में जो ज्ञान बोध उत्पन्न करवाता है वह गुरु तत्त्व है, जो सबसे पर शुद्ध-बुद्ध आत्मा है ।

यह तो वैखरी है - वाणी है, अक्षर ज्ञान है, शब्द का ज्ञान है । इससे आगे बढ़कर कोई हमें प्रेरणा देकर मनन, चिंतवन और निदिध्यासन की ओर ले जाता है और बाद में हमारे आचार-विचार, खान-पान, वाणी-व्यवहार, स्वाभाविक ही बदलने लगते हैं । सबके प्रति स्वत: ही प्यार होने लगता है । संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध कर्म की व्याख्या समझ में आ जाती है । तब धीरे-धीरे जीव इस भौतिक विश्व से ऊपर उठने लगता है और अपनी स्थिति में प्रवेश करता है ।

यह सब प्रेरणा सूक्ष्म सदगुरु तत्त्व की है । वहाँ से भी एक कदम आगे बढ़ते है, तो हमारे सभी कर्म योग में जहाँ हम खुद को करता मानते थे, वहाँ अब खुद को कारण मानने लगते है । सब करने के बाद भी हम कुछ नहीं करते । अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में भी संचित और प्रारब्ध का दर्शन कर हम स्थिर और प्रसन्न रहते है । सहज ही आरंभ किया हुआ पूर्ण करते हुए, संचित को पूर्ण करते हुए और वर्तमान कर्म योग फिर से संचित ना हो उस तरह से हम दृष्टा और साक्षी भाव में जीने लगते है । यह सब प्रेम और ज्ञान के भंडार स्वरूप व्यापक सदगुरु तत्त्व ही देता है ।

स्वरूपानुभुति, जीवनमुक्ति और आत्म साक्षात्कार, जन्मो जन्म साधना उपासना करने के बाद सदगुरु की कृपा से मिलती है । यह कब, किसको, कहाँ और कैसे मिलेगी यह कहना कठिन है । सदगुरु के चरण में अपनी गाढ़ निष्ठा, श्रद्धा, विश्वास और अनन्य शरणागती अनेक जन्मों की यात्रा को छोटी कर देता है । जबकि तर्क-कुतर्क, संकल्प-विकल्प, शंका-कुशंका इत्यादि कभी-कभी ध्येय प्राप्ति में देरी करवाते है, इसीलिए अगर कोई सिद्ध समर्थ महापुरुष मिल गए हो तो उनकी विषय में तर्क और शंका-कुशंका नहीं करनी चाहिए लेकिन किसी को जाने पहचाने बिना सदगुरु मान लेना वह भी जल्दबाजी ही कही जाएगी क्योंकि आजकल लोग यश और प्रतिष्ठा की तरफ ज्यादा आकर्षित होते है, खुद का मान-सन्मान और तारीफ किसे पसंद नहीं होगी ? लेकिन बिना योग्यता यह सब स्वीकार कर लेना पीड़ादायक बन जाता है।

बहुतसे साधक किसी समर्थ महापुरुष की गुरु कृपा से और कुछ खुद की साधना के प्रभाव से कुछ इस प्रकार की अनुभूतियां करने लगते हैं की - जिसमें वह खुद उलझन में पड जाते है । मतलब ध्यान में, स्वप्न में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध भगवान, महावीर स्वामी, हनुमान जी या काली माता सब देवी-देवताओं के दर्शन करके वो ऐसा मानने लगते है कि - मुझे सबका साक्षात्कार हो गया, मुझे आत्मज्ञान हो गया । उनको इतना भी पता नहीं चलता कि समर्थ गुरु की कृपा के बाद हमारे मानस पटल पर देवी-देवताओं की जो छवी अंदर दबी पड़ी हुई है वह अब बाहर आ रही है । गुरु उनकी कृपा द्वारा, सूक्ष्म दृष्टि से आकाश की उस ओर वह दृश्य दिखाके मुझे शुद्ध और पवित्र बना रहे है । कोई भी देवी-देवता का स्वरूप मात्र हम देखते है वही स्वरूप नही है । वे तो समयानुसार अपना स्वरूप बदलते रहते है । जैसे कि भगवान विष्णु राम भी बने, कृष्ण भी बने, वामन भी बने, नरसिंह भी बने, वराह और कश्यप भी बने, फिर भी वे विष्णु के विष्णु ही रहे । आपको समझना चाहिए कि - जैसे आप एक स्थूल शरीर नही हो, बल्कि वह स्थूल शरीर आपका निवास स्थान है, आप तो एक शुद्ध बुद्ध आत्मा हो । वैसे ही देवी-देवता भी संजोग अनुसार तत्त्वों, गुणों और प्रकृति की मदद से आकार धारण करते है और फिर उस आकार का विसर्जन कर खुद के व्यापक तत्त्व में मिल जाते है । कहने का तात्पर्य यह है कि - जब शुभ और अशुभ सारी वृत्तिओ का शमन हो जाता है, तब मन निर्विचार, स्थिर, शांत और परमानंद की अनुभूति करता है । साक्षात्कार शब्द का अर्थ "मूल स्वरूप की अनुभूति है, किसी आकार का दर्शन करना नही"।

मनमें जन्म-जन्मांतर से बैठा हुआ जो अज्ञान है, भ्रम है, अभिमान है, विचारों की मलिनता है वो जल्दी से शुद्ध नहीं होती । आप शायद अच्छा बोलने, लिखने या कहने में समर्थ जरूर हो सकते हो लेकिन "जैसी कथनी वैसी करनी" अनुसार अखंड स्थिति में रहना महा मुश्किल है । दबी हुई वृत्ति तुरंत बहार आ ही जाती है और वो अच्छे है, बुरे है, ऐसे है, वैसे है, में ऐसा हूँ - वैसा हूँ कहने लग ही जाते है । अगर संपूर्ण स्थिति प्राप्त हो जाए तो साम्य अवस्था आ जाती है - सहजावस्था आ जाती है, वाणी और वर्तन में एकता आ जाती है, सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता सब एकरस हो जाता है । परम शांति - परमानन्द हो जाता है । जीवन्मुक्त - सहजावस्था में रहने वाले व्यक्ति को वाणी-वर्तन, क्रिया-कलाप, कार्य-व्यवहार से पहचानना बहुत मुश्किल है । राजा जनक भी जीवन्मुक्त रहे थे, जड़ भारत भी रहे थे, वैसे ही अनेको सिद्ध-संत भी रहे है फिर भी सबके रहने-जीने की, बोल-चाल की रीत-भात भिन्न-भिन्न थी । इसलिए दुसरो की स्थिति मापने-जानने का छोड़ सदगुरु चरण में श्रद्धा-विश्वास रख अनन्य शरणागति से "स्थिति" प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही उत्तम है ।

यहाँ जो कुछ भी वैखरी में व्यक्त हो रहा है, ये सब अणुं-अणुं में अखंड व्याप्त जो सदगुरु तत्त्व है वही कह रहे है । यहाँ मैं सदगुरु दत्तात्रेय की बात कर रहा हूं, जो रूप-अरूप में अणुं-अणुं में अखंड व्याप्त है । क्षमा, दया और करुणा के सागर है । हंमेशा भक्तों को ध्येय की तरफ अभिमुख होने की प्रेरणा देते है, कल्याण करते है और मुक्ति दिलाते है । जब दत्तात्रेय जैसे समर्थ गुरु मिले हो तब स्थूल में किसी को भी ढूंढने की क्या जरूरत है ? फिर भी भाग्य योग से अगर किसी को स्थूल गुरु प्राप्त हुए हो तो उनमें सदगुरु की भावना का आरोपण करके उनकी भक्ति करनी चाहिए । स्थूल में कभी-कभी भ्रांति होना संभव है, इसीलिए सदगुरु दत्तात्रेय को गुरु मान के चलना चाहिए ऐसी मेरी प्रेरणा रही है।

आप लोग एक बात पर मुझे क्षमा करना, मैं किसी को कंठी नहीं पहनाता, किसी को चेला नहीं बनाता, मैं अपनी आरती-पूजा नहीं करवाता । जब गुरु ही नहीं बनता तो गुरु दक्षिणा का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर भी मैं एक सच्चा और अच्छा मार्गदर्शक जरूर हूँ । आपको पढाकर, अच्छा शिक्षक बनने में कारणभूत जरूर बन सकता हूँ । सदगुरु तत्त्व की ऐसी महिमा है की - मैं लोगों में प्रसिद्धि से पर हूँ लेकिन आपकी भाषा में कहूँ तो - सदगुरु दत्तात्रेय भगवान महाप्रलय तक रहने वाले है, तो यहाँ गुरु का आसान खाली ही नहीं है, तो किसीके गुरु बनने का प्रश्न ही नहीं उठता ।

गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है की जिसमें सदगुरु द्वारा सच्चे संस्कार, सत्य, न्याय, सेवा, त्याग , प्रेम, आत्मीयता, नीति-नियम, शुद्ध आचार-विचार का विकास होता है, जिससे व्यक्ति, कुटुंब, परिवार, समाज और देश स्वस्थ रहता है । गुरु कृपा से मन, चित, बुद्धि शुद्ध बनते हैं, निज स्वरूप का ज्ञान होता है, जीव राग, द्वेष, ईर्ष्या इन सब से दूर हो कर प्रेम की नदी बहाने लगता है । सब में अपनापन दिखने लगता है, स्वार्थ वृत्ति दूर हो जाएगी । कहने का तात्पर्य यह है की - सदगुरु जीवन जीने की ऐसी जड़ी बूटी देते हैं की जिससे जीव सुख, शांति, आनंद प्राप्त करके परम शांति प्राप्त कर लेता है ।

"हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त" महामंत्र के माध्यम से सदगुरु दत्तात्रेय आपके पास प्रत्यक्ष उपस्थित रहते है । लगभग सबको सदगुरु के सानिध्य की अनुभूति होती हो तो आप सब लोग गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर अखंड व्याप्त सदगुरु दत्तात्रेय भगवान की पादुका का पूजन करके अपने पास ही सदगुरु की उपस्थित का अनुभव कीजिए, फिर भी अगर किसी के स्थूल गुरु हो तो आप उनको याद करके और उन्हीं में सदगुरु के दर्शन कीजिये ।

जिनके स्थूल गुरु ना हो वह लोग सदगुरु दत्तात्रेय को गुरु मान के आज "हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त" महामंत्र की धुन बोलकर ध्यान में बैठे । अलौकिक आनंद आएगा, श्रद्धा, भक्ति और विश्वास जितना गाढ होगा, उतनी ज्यादा सुंदर अनुभूति होगी । खुद के दोषो, दुर्गुणों को सदगुरु दत्तात्रेय के चरणों में दक्षिणा रूप में अर्पण कर दे, और अपना कल्याण कीजिए। गुरु पूर्णिमा जीवन जीने के लिए अपार बल और शक्ति देती है ।

चलिए, हम सब गुरु दत्तात्रेय के चरणानुरागी बनते है। उनको गुरु मान के ध्येय सिद्ध करते है । हम सब भाई-बहन एक ही सदगुरु दत्तात्रेय की छत्रछाया में रहे, अगर परस्पर आचार संहिता का पालन करना हो तो छोटे बड़ों की कदर करते हुए, सम्मान करते हुए ध्येय सिद्ध करना सर्वोत्तम रहेगा । आपका भला हो - आपका कल्याण हो ।



~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )



"आप लोग एक बात पर मुझे क्षमा करना, मैं किसी को कंठी नहीं पहनाता, किसी को चेला नहीं बनाता, मैं अपनी आरती-पूजा नहीं करवाता । जब गुरु ही नहीं बनता तो गुरु दक्षिणा का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर भी मैं एक सच्चा और अच्छा मार्गदर्शक जरूर हूँ । आपको पढाकर, अच्छा शिक्षक बनने में कारणभूत जरूर बन सकता हूँ । सदगुरु तत्त्व की ऐसी महिमा है की - मैं लोगों में प्रसिद्धि से पर हूँ लेकिन आपकी भाषा में कहूँ तो - सदगुरु दत्तात्रेय भगवान महाप्रलय तक रहने वाले है, तो यहाँ गुरु का आसान खाली ही नहीं है, तो किसीके गुरु बनने का प्रश्न ही नहीं उठता ।"

~(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज)




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